अगर ये हार कांग्रेस की है तो ये उससे कहीं ज़्यादा राहुल गांधी की हार है। हाल ही में इकोनॉमिक टाइम्स ने कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों से ...
अगर ये हार कांग्रेस की है
तो ये उससे कहीं ज़्यादा राहुल गांधी की हार है। हाल ही में इकोनॉमिक टाइम्स ने
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों से मिली ख़बर के मुताबिक बताया था कि पार्टी के भीतर
राहुल और अहमद पटेल के बीच एक खामोश जंग चल रही है जिसमें राहुल पटेल के फ़ैसलों
को दरकिनार करते हुए ख़ुद पार्टी और चुनावों के मद्देनज़र फ़ैसले ले रहे थे। इसमें
मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य को कमान सौंपने का फ़ैसला भी साबित था। ज़ाहिर है
राहुल कहीं न कहीं इसे ठीक नहीं कर सके और कांग्रेस पार्टी आम लोगों तक संपर्क
कायम करने में नाकामयाब रह गई।
हम लोगों से जुड़ नहीं सके- सोनिया गांधी
हमें देखना होगा कि हम किस तरह से लोगों तक अपना संदेश नहीं पहुंचा पाये और साथ ही हमें ये भी देखना होगा कि हमारी पार्टी चुनावों में किस तरह से तैयार थी या नहीं थी
चुनाव की
ज़िम्मेदारी राहुल गांधी पर थी और वो इसे बख़ूबी निभा नहीं पाये। अब उनके लिए एक
तरह से पार्टी के भीतर पहले ज़्यादा चुनौती होगी जहां वो अहमद पटेल जैसे पुराने मंझे
कांग्रेसी की राय को दरकिनार करते हैं। हो सकता है पार्टी में उनके फ़ैसलों पर
उंगली भी उठनी लगे, जिसकी शुरुआत शायद जनार्दन द्विवेदी ने शुरू भी कर दी है।
जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि
जिसकी मर्ज़ी वो सरकार की तरफ़ से बोलने लगा था जिससे लोगों में भ्रम फैला।
द्विवेदी यहां तक कह डाला कि व्यक्ति विशेष के कार्यक्रम की उपलब्धि लेने के चक्कर
में सरकार की किरकिरी हुई और सरकार और पार्टी लोगों तक पहुंच नहीं बना पाये।
द्विवेदी का ये
इशारा राहुल के अध्यादेश को नॉन सेंस कहनेवाले बयान की तरफ हो सकता है और ये एक
तरह से राहुल के चुनावी नेतृत्व पर भी सवाल है जो ये संगठन को संगठित रखने में
नाकामयाब रहा।
जनार्दन
द्विवेदी के मुताबिक राजस्थान में कांग्रेस पार्टी भीतर ही बातें हो रही थीं कि
पार्टी 50 सीट भी पार नहीं कर पायेगी। इतना ही नहीं उन्होंने दिल्ली में भी संगठन
और सरकार के बीच दरार होने की बात कही और कहा कि ये दरार 5 साल से ज़्यादा समय से चल रही है और उसे पाटना चाहिए था। शायद ये दूरियां दूर
नहीं कर पाने का आरोप सीधा राहुल पर था।
यही वजह है कि राज्य
सरकार के चुनावों के बाद जो सोनिया गांधी अमूमन मीडिया से रू-ब-रू नहीं होतीं वो पार्टी
उपाध्यक्ष और बेटे राहुल गांधी के साथ आती हैं और मीडिया के सामने पहले मोर्चा
संभालती हैं और बाद में राहुल को आगे करती हैं और राहुल भी ये कह जाते हैं कि अब
से हम जनता को दिल और दिमाग से समझने की कोशिश करेंगे।
अपने पहले बयान
में राहुल बेहद नाराज़ दिखते हैं लेकिन ये नाराज़गी अपनी नाकामयाबी छुपाने की
ज़्यादा लगती है और पार्टी की चिंता कम लगती है। यही वजह है कि वो अब भी पारम्परिक
सियासी रणनीतियों को नकारने में लगे हैं और जिस तरह से वो बयान देते हैं वो बताता
है कि उनकी अपने हिसाब से पार्टी को चलाने की रणनीति आगे भी जारी रहनेवाली है और
हो सकता है कि लोकसभा चुनावों में कई कांग्रेसियों के टिकट भी कट जाएं।
हम आम आदमी पार्टी से सबक लेंगे- राहुल गांधी मुझे लगता है आम आदमी पार्टी ने लोगों को शामिल किया जो पारम्परिक पार्टियों ने नहीं किया। हमें उससे सबक मिलता है और हम लोगों को शामिल करने के लिए काफी कुछ करेंगे और इस तरह से जैसा आप सोच भी नहीं सकते
राहुल गांधी 10
सालों से कांग्रेस को बदलने में लगे हैं और अब भी वो एक तरह हिंदुस्तान की
राजनीतिक को सीख ही रहे हैं। शायद इसीलिए एक साल पहले आई पार्टी का प्रदर्शन
उन्हें 127 साल पुरानी कांग्रेस में एक और ट्रासफॉर्मेशन का सबक सिखाता है। अब
सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी के पास वक़्त इस नये प्रयोग को आज़माने के लिए?