जनलोकपाल की जंग अन्ना और अरविंद के साथ चली लेकिन आज अन्ना और अरविंद ही इस मुद्दे पर आमने सामने हैं। वजह अब सियासी है। कांग्रेस दिल्ली ...
जनलोकपाल की जंग अन्ना और अरविंद के साथ चली लेकिन आज अन्ना और अरविंद
ही इस मुद्दे पर आमने सामने हैं। वजह अब सियासी है। कांग्रेस दिल्ली को आम आदमी
पार्टी की वजह से दिल्ली में हार मिलती है और बीजेपी सरकार बनाते बनाते रह जाती
है। अब लोकपाल लाकर जहां कांग्रेस जनसमर्थन वापस पाने की कोशिश में है तो जिस
मुद्दे पर नई पार्टी या यूं कहें कि नई चुनौती आम आदमी पार्टी खड़ी हुई कांग्रेस
उसी मुद्दे को ख़त्म कर देना चाहती है और इसमें बीजेपी उसके साथ है। वजह ये है कि
आनेवाले दिनों आम आदमी पार्टी इन दोनों पार्टियों का हिसाब-किताब बिगाड़नेवाली है
और कांग्रेस और बीजेपी दोनों के पास अब लोकपाल ही वो हथियार है जिसे पास कर दोनों
पार्टियां जनता के बीच में ये कह सकती है कि जिस बिल के नाम पर ये पार्टी खड़ी हुई
अब वो मुद्दा ही नहीं रहा तो आम आदमी पार्टी ही ख़त्म होनी चाहिए।
सियासत में उतर चुकी और जनता का उत्साह देख चुकी आम आदमी पार्टी को
लगता है कि ये मुद्दा ज़िंदा रहना चाहिए और 80% मांगे मान लेने के बावजूद 100% की ज़िद करने के
पीछे आम आदमी पार्टी की मंशा यही है कि जो ताक़त उन्होंने दिल्ली में दिखाई है उसी
ताक़त से वो लोकसभा चुनावों में भी पारम्परिक राजनीतिक दलों को पीछे धकेल सके। अब AAP
को सियासत में बने
रहना है तो मूल मुद्दा बनाये रखना है शायद यही वजह है कि आम आदमी पार्टी उन अन्ना
के साथ खड़ी नहीं हो पा रही जो कांग्रेस-बीजेपी समर्थित लोकपाल बिल के साथ हैं।
दिल्ली का शो आनेवाले लोकसभा चुनावों में AAP को राष्ट्रीय स्तर पर BJP और Congress के सामने खड़ा करता
है और जो मुक़ाबला अब तक बीजेपी बनाम कांग्रेस था वो अब त्रिकोणीय हो जाएगा। ये
ठीक दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरह है जहां कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर में लड़ना
था तो बीजेपी को उसी सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाना था। कमोबेश यही हालात पूरे
देश में है जो लोकसभा चुनावों में मोदी को राहुल से ज़्यादा मज़बूत बनाता है लेकिन
तीसरे चेहरे के तौर पर आए केजरीवाल ने राहुल और मोदी दोनों के लिए मुश्किलें खड़ी
कर दी हैं। राहुल और मोदी अभी भी ये हिसाब नहीं लगा पा रहे कि अगर केजरीवाल का
चेहरा लोकसभा चुनावों में सामने आता है तो नुकसान कितना होगा। लेकिन दोनों को ये
तो पता है कि नुकसान तो होना है। ऐसे में नये चेहरे पर अनिश्चित होने के बावजूद
दोनों ही रिस्क नहीं ले सकते लिहाज़ा हथियार के तौर पर लाया गया है लोकपाल बिल को
जिसे पास कर के दोनों पार्टियां भले ही ख़ुद क्रेडिट न लें लेकिन इसे अरविंद के
हाथों से छीन सकते हैं और अन्ना के असली हितैषी बन सकते हैं।
कांग्रेस-बीजेपी अब तक देश में जो पारम्परिक सियासत करती आई हैं वो एक
तरह से वही कर रही हैं। दोनों पार्टियां लोकसभा चुनावों में हमेशा से यही दिखाती
रही हैं कि देश में दो ही पार्टियां हैं जो केंद्र की सत्ता संभाल सकती हैं और इसी
रणनीति से वो क्षेत्रीय पार्टियों के वोटबैंक में दखल दे पाती हैं। इसके लिए दोनों
पार्टियों के बीच एक अनकहा समझौता है और इसीलिए लोकसभा चुनाव में एक तरफ राहुल की
सेना नज़र आती है तो दूसरी तरफ़ मोदी की। अब जब नया चेहरा सामने आ गया है तो
बीजेपी और कांग्रेस फिर उसी रणनीति पर हैं कि किसी तरह से तीसरे चेहरे को आउट किया
जाए और जंग सिर्फ बीजेपी-कांग्रेस के बीच हो।